नीरा बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठी बारिश की झिलमिलाती बूंदों को टकटकी लगाये देख रही थी। हाथ में चाय का प्याला था, जिसकी गर्म चुस्कियाँ उस भीगे हुए दिन की ज़रूरत थी।
दिल उदास था उसका। सुबह-सुबह ही पतिदेव से ज़ोर-दार झगड़ा हुआ था। यद्यपि पति-पत्नि के बीच नोंक-झोंक और लड़ाई-झगड़ा कोई नई बात नहीं। इसे दांपत्य जीवन का अंश कहा जाये, तो गलत न होगा। प्यार और तकरार का तालमेल ही तो दांपत्य जीवन में रस घोलता है। लेकिन, जब प्यार कहीं गुम हो जाये और बस तकरार ही रह जाये, तब क्या?
तब यही उदासी, ठंडा हो चुका मन, जिसमें कोई भी चाय की चुस्की गर्माहट पैदा न कर पाये।
वह नीरा के लिए कुछ वैसा ही दिन था - उदास, ग़मज़दा, नीरस, बेरंग। बीते कुछ अरसे यूं ही तो गुज़रे थे।
नीरा ने नज़र घुमाकर देखा। पास ही मायरा खेल रही थी। अंदर सोफ़े पर लेटी मिशा उसके मोबाइल पर किसी गेम में अपना दिमाग दौड़ा रही थी। मायरा और मिशा दोनों नीरा की बेटियाँ थीं। मिशा बड़ी आठ बरस की और मायरा छोटी चार बरस की। ये दोनों ना होती, तो पता नहीं ज़िन्दगी क्या होती? नीरा ने आह भरते हुए सोचा।
मोबाइल आजकल के बच्चों को कैसे अपने आकर्षण में जकड़ लेता है? इसका प्रमाण थी - मिशा, जो कब से टस-से-मस नहीं हुई थी। इधर मायरा न एक जगह टिक कर बैठ पाती थी, न किसी एक खिलौने में उसका दिल लगता था। वह भाग-भाग कर अंदर जाती और अलग-अलग खिलौनों के साथ बाहर आती। थोड़ी देर उनसे खेलकर वह ऊब जाती और फिर से अंदर की दौड़ लगा देती।
इस बार जब वह बाहर आई, तो उसके हाथ में एक फ़ोटो लहरा रही थी। नीरा अपने ही ख़यालों में गुम थी। सुबह के झगड़े की आग अब भी उसके दिल में सुलग रही थी। वह बारिश की बरसती बूंदों में सराबोर होकर इस आग को बुझा देना चाहती थी। मगर क्या ये आग बारिश की बूंदें बुझा पाती? शायद नहीं!!
मायरा पास आई और उसे हिलाते हुए पूछने लगी, “मम्मा! ये फ़ोटो किसकी है?”
नीरा ने पहले मायरा पर नज़र डाली, फ़िर फ़ोटो पर। अनायास ही उसके चेहरे के भाव बदल गये। अधरों पर एक मीठी सी मुस्कान तैर गई। कितने दिनों बाद मुस्कान उसके अधरों पर बिखरी थी।
“बताओ ना मम्मा, ये किसकी फ़ोटो है?” मायरा ने फिर से पूछा।
“ये मैं हूँ बेटा!” नीरा ने प्यार से कहा और फ़ोटो अपने हाथ में ले ली।
“ये कौन है, जो गिटार बजा रहा है?” मायरा की जिज्ञासा अब तक शांत नहीं हुई थी।
“ये.....ये मेरा सबसे अच्छा दोस्त है।” नीरा फ़ोटो को निहारते हुए बोली, जिसमें चौदह बरस की नीरा सोलह बरस के गिटार बजा रहे लड़के को देखकर मुस्कुरा रही थी।
“सबसे अच्छा दोस्त....मतलब....बेस्ट फ्रेंड?” मायरा ने आँखें मटकाकर पूछा।
“हाँ बेटा...बेस्ट फ्रेंड!” नीरा ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फ़ेरा।
“जैसे मेरा फूज़ी!” मायरा के सवाल अब तक ख़त्म नहीं हुए थे।
“हाँ...जैसा तुम्हारा फूज़ी!” अबकी बार नीरा ने उसके गाल खींचे।
“मम्मा, मैं फूज़ी के साथ खेलने जा रही हूँ।” मायरा ने कहा और अंदर भाग गई। फूज़ी मायरा का टेडी बेअर था, जो उसे जान से भी प्यारा था।
नीरा ने फ़ोटो पर हाथ फ़ेरा, मानो यादों पर जमी परत साफ़ कर रही हो। उसकी यादों पर बस एक ही शख्स का तो नाम लिखा था – ‘विवान”। उसका सबसे अच्छा दोस्त, उसका पहला प्यार और शायद आखिरी भी। प्यार का मायने उसने ही तो समझाया था, प्यार करना भी तो उसने सिखलाया था और फिर..फ़िर जाने कहाँ खो गया।
विवान से नीरा की पहली मुलाक़ात बारिश के दिन ही हुई थी। छः बरस की थी वो। पिता का तबादला नये शहर में हुआ था। नये शहर की पहली बारिश में भीगने के लिए कितनी मचल रही थी वो। लेकिन माँ ने उसे घर में बंद कर रखा था। अपने बालमन को संभाले वो खिड़की से बारिश की बूंदों को टुकुर-टुकुर देख रही थी। वह हाथ बाहर निकालती और उन पारदर्शी बूंदों को हाथ में नाचते हुए देखती। उन नाचती बूंदों के साथ उसका मन भी नाच उठता।
जब बारिश थमी, तो नीरा के कानों में बच्चों के चहकने की आवाज़ गूंज उठी। अब वह घर की कैद से छूटने को बेक़रार थी। वह दौड़कर माँ के पास गई और पूछने लगी, “माँ मैं बाहर जाऊं?”
“नहीं! कीचड़ में गंदी होकर वापस आयेगी। घर पर रह।” माँ ने मना कर दिया।
नीरा का चेहरा उतर गया। वह फिर से खिड़की के पास चली गई और उचक-उचक कर बच्चों को देखने की कोशिश करने लगी।
उसकी इस हरक़त पर माँ का दिल पिघल गया। वह बोली, “अच्छा ठीक है, चली जा। लेकिन चप्पल पहनकर जा और कीचड़ से दूर रहना।”
नीरा ख़ुशी से झूम उठी। झटपट चप्पल पहनकर तैयार हो गई। उधर माँ ने दरवाज़ा खोला और वो एक आज़ाद पंछी की तरह फुर्र...
बाहर गली में जगह-जगह पर पानी भरा हुआ था, जिसके आसपास ढेर सारे बच्चे जमा होकर कागज़ की कश्ती तैरा रहे थे। उछलती-कूदती नीरा उनके पास जाकर इस आस में खड़ी हो गई कि उनमें से कोई न कोई उसे ज़रूर बुलायेगा। मोहल्ले में नई होने की वजह से उसका वहाँ कोई दोस्त नहीं था।
वह कुछ देर यूं ही खड़ी रही और हँसते-गाते, खेलते, कश्ती बनाते, उसे तैराते बच्चों को देखती रही। मगर किसी ने उसे नहीं बुलाया। उसका बालमन उदास हो गया। वह सिर झुकाकर जाने के लिए पलट गई। ठीक उसी वक़्त एक आवाज़ आई, “कश्ती तैराओगी?”
वह पलटी। सामने एक लड़का खड़ा था, जो उसकी ओर कश्ती बढ़ा रहा था। उसने मुस्कुराते हुए कश्ती अपने हाथ में ले ली और उसे पानी में छोड़ दिया। कश्ती पानी में तैरने लगी, जिसे देख वह ख़ुश होकर ताली बजाने लगी।
उसे ख़ुश देख लड़का भी ख़ुश हो गया। वह कागज़ की कश्तियाँ बना-बनाकर नीरा को देता। नीरा उन्हें पानी में छोड़ती। कश्ती जब बहने लगती, तो दोनों हँसते, खिलखिलाते, ताली बजाते, ख़ुशी से झूमते।
बचपन में खुशियाँ हासिल करना बड़ा सहज होता है। उस समय हम उन छोटी-छोटी चीज़ों में ख़ुशियाँ ढूंढ लेते हैं, जो उम्र के एक पड़ाव पर पहुँचकर नज़र के सामने होते हुए भी हमें दिखाई नहीं पड़ती। खैर, नीरा ख़ुश थी। बेहद ख़ुश और वो ख़ुशी उसकी आँखों में चमक रही थी। मगर कुछ ही देर में उसकी आँखों की वो चमक गायब हो गई, जब उसे अपनी माँ की पुकार सुनाई पड़ी, “नीरा...नीरा...चलो घर आओ।”
नीरा ने पलटकर माँ को देखा। उसका घर वापस जाने का दिल नहीं चाहा। माँ ने फिर से उसे पुकारा, “नीरा! जल्दी आओ, नहीं तो मैं आकर कान पकड़कर ले जाऊंगी।”
नीरा मुँह बनाकर घर की ओर लौटने लगी।
“नीरा....नीरा!” किसी ने उसका नाम पुकारा।
वह पलटी। वही कश्ती वाला लड़का उसे पुकार रहा था,
“नीरा...मैं विवान हूँ। अब हम दोस्त हैं ना!”
“हाँ हम दोस्त हैं।” नीरा ने जवाब दिया।
उस दिन से दोनों पक्के दोस्त बन गये। दोनों की दोस्ती ऐसी कि एक के बिना दूसरे को चैन नहीं। दोनों साथ ही नज़र आते। जब विवान पतंग उड़ाता, तो नीरा चकरी संभालती; जब विवान बैडमिंटन खेलता, तो नीरा शटलकॉक उठाकर देती; जब विवान क्रिकेट या फुटबॉल खेलता, तो नीरा पानी की बोतल लिए खड़ी रहती। बचपन की ये दोस्ती गुज़रते समय के साथ और भी गहराती गई।
क्रमश:
दोस्तों! उम्मीद है, आपको आज का भाग पसंद आया होगा। कहानी का अगला भाग जल्द रिलीज होगा।
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